नई दिल्ली – डॉ. पारस सिंगल कहते हैं, दिल्ली-एनसीआर में महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ा एक चिंताजनक सच सामने आया है। ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़, यहां करीब 25 प्रतिशत महिलाएं मूत्र असंयम (यूरिनरी इनकॉन्टिनेंस) की समस्या से जूझ रही हैं एक ऐसी स्थिति जो उनके रोज़मर्रा के जीवन, कामकाज और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डाल रही है। इनमें से लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं ‘स्ट्रेस यूरिनरी इनकॉन्टिनेंस’ से पीड़ित हैं यानी खाँसने, छींकने, हँसने या भारी सामान उठाने जैसी साधारण गतिविधियों के दौरान पेशाब का रिसाव होना। समस्या के इतने व्यापक होने के बावजूद, ज़्यादातर महिलाएं इलाज नहीं करातीं। वजह है शर्म, गलतफहमियां और समय पर उचित इलाज तक पहुंच का अभाव। सामाजिक कलंक भी इस बीमारी को और कठिन बना देता है। एक अध्ययन के मुताबिक़, प्रभावित महिलाओं में 40 प्रतिशत ने स्वीकार किया कि उन्हें शर्मिंदगी और अपमान का एहसास होता है। कई महिलाएं सामाजिक मेलजोल से दूर हो जाती हैं और पेशेवर जगहों पर भी जाने से कतराती हैं। आर्थिक बोझ भी कम नहीं है एक मरीज पर इलाज और प्रबंधन का औसत खर्च सालाना करीब 50 हज़ार रुपये तक पहुंचता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह केवल जीवन-गुणवत्ता का मामला नहीं, बल्कि एक गंभीर जनस्वास्थ्य चुनौती है, जिसे प्रणालीगत स्तर पर संबोधित करने की ज़रूरत है। समय रहते निदान, विशेषज्ञ उपचार और व्यापक जागरूकता अभियान ही इस स्थिति को बदला सकते हैं। उरो-लॉजिस्ट डॉ. पारस सिंगल कहते हैं,भारत में आज मूत्र असंयम सबसे उपेक्षित महिलाओं की स्वास्थ्य समस्याओं में से एक है यह दुर्लभ नहीं, बल्कि इसलिए अनदेखी है क्योंकि इसे छिपा दिया जाता है। कई महिलाएं सालों तक चुपचाप इस बोझ को ढोती रहती हैं, यह मानकर कि यह प्रसव, रजोनिवृत्ति या उम्र बढ़ने के बाद सामान्य है। लेकिन सच यह है कि यह इलाज़ योग्य है और इसे सामान्य मानना ग़लत है। हमारे पास आज उन्नत डायग्नोस्टिक तकनीकें, पेल्विक फ्लोर रिहैबिलिटेशन और मिनिमली इनवेसिव सर्जरी के विकल्प मौजूद हैं, जो नतीजों को नाटकीय रूप से बेहतर बना सकते हैं। ज़रूरत है समय पर रिपोर्टिंग, संवेदनशील देखभाल और ऐसी सांस्कृतिक सोच की, जो महिलाओं को बिना शर्म अपने लक्षण बताने के लिए प्रोत्साहित करे। समय पर इलाज न केवल ब्लैडर कंट्रोल वापस लाता है, बल्कि आत्मसम्मान और आत्मविश्वास भी लौटाता है। देशभर में 2 करोड़ से अधिक महिलाएं इस समस्या से प्रभावित हैं। विशेषज्ञों का कहना है अब इंतज़ार का वक्त ख़त्म हो चुका है। यह केवल लक्षणों को संभालने की बात नहीं, बल्कि उन लाखों महिलाओं को उनकी सेहत, आत्मविश्वास और रोज़मर्रा की आज़ादी वापस देने की लड़ाई है, जो अब तक चुपचाप पीड़ा सह रही हैं।