नई दिल्ली – गैर सरकारी संस्था नव सृष्टि के स्थापना दिवस समारोह पर संस्था की सचिव रीना बनर्जी ने कहा कि वषर्1987 मेरे जीवन की वह सुबह, जिसने मुझे एक नए रास्ते पर ला खड़ा किया। उन्होंने कहा कि शक्तिशालिनी संस्था में कार्यालय सहायक के रूप में काम करने काअवसर मिला। उस समय मैं बारहवीं कक्षा की परीक्षा पत्राचार के माध्यम से दे रही थी। वहाँ कदम रखते ही जैसे मेरी आँखों के सामने एक अनदेखी दुनिया खुल गई। अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आई महिलाओं की पीड़ा, उनकी टूटी आवाज़ें और अनकहे दुख मेरे भीतर गहराई तक उतरते चले गए। जहाँ मेरा बचपन बीता था, वहाँ जीवन की कठिनाइयाँ तो थीं, परंतु नशा, हिंसा, भ्रष्टाचार, दहेज और बाल विवाह जैसी समस्याओं का प्रत्यक्षअनुभव नहीं हुआ था। मेरा जीवन अपेक्षाकृत सुरक्षित और सरल था। पर जब उन स्त्रियों की कहानियाँ सुनीं, तो भीतर कुछ टूटता भी था और कुछ नया जन्म भी लेता था। धीरे-धीरे यह अनुभव मेरी दिशा बन गया। मैंने काउंसलर के रूप में काम करना शुरू किया और तय किया कि सामाजिक क्षेत्र ही मेरी राह है।पुनर्वास कॉलोनियों में महिलाओं से मिलते हुए महसूस किया कि उनकी सबसे बड़ी ताक़त स्वयं वे खुद हैं। पर वह ताक़त तभी आती है-जब शिक्षा, जागरूकता और आत्मनिर्भरता उनके साथ हो। उन्होंने बताया कि इसी विचार ने वर्ष 1994 में ‘‘नव सृष्टि’’ को जन्म दिया। सपना था-एक ऐसा मंच जहाँ महिलाएँ सिर ऊँचा करके जी सकें, अपने अधिकार पहचान सकें और अपने भविष्य को खुद सँवार सकें। सफ़र आसान नहीं था। कई बार संदेह घेरता कि क्या यह संभव हो पाएगा? पर हर कदम पर साथियों का सहयोग और समुदाय का विास मिला। नांगलोई की गलियों से शुरू हुई यह यात्रा आज लाखों जीवनों को छू चुकी है। कभी जिन लड़िकयों को स्कूल का दरवाज़ा तक नसीब नहीं था, वे आज कॉलेज की सीढ़ियाँ चढ़ रही हैं। जो कभी भीख माँगकर पेट भरते थे, वे आज मेट्रो, कंपनियों और स्वयंसेवी संगठनों में काम कर रहे हैं। कुछ नेअपने छोटे-छोटे कारोबार शुरू कर लिए हैं और दूसरों को भी रोज़गार दे रहे हैं। हमने बच्चों के लिए क्रेच खोले, ताकि माँ निश्चिंत होकर काम कर सके।शिक्षा से वंचित बच्चों को स्कूल से जोड़ा। किशोरों को सिलाई, ब्यूटीर्पार, कंप्यूटर, रिटेल और मार्केटिंग जैसे कौशल दिए। महिला पंचायतों और परामर्श केंद्रों ने टूटते परिवारों को सँभाला। समुदायों में स्वास्थ्य शिविर लगाए, जागरूकता अभियान चलाए और बाल सुरक्षा के लिए विज़िलेंस ग्रुप बनाए। उन्होंने बताया कि आज, लगभग चार दशकों के बाद, यह देखकर आत्मा सुकून पाती है कि 10 (दस) बालिकाओं से शुरू हुआ यह प्रयास अब 10 (दस लाख) लाख से अधिक महिलाओं, बच्चों और युवाओं की ज़िंदगी में उम्मीद की किरण बन चुकाहै। मेरे लिए समाज सेवा किसी डिग्री या प्रमाणपत्र की मोहताज नहीं। सबसेबड़ा प्रमाणपत्र है-दिल की संवेदनशीलता और पीड़ा के प्रति असहनीय मौन न रख पाना। यही संवेदना हमें आगे बढ़ाती है। आज देश-विदेश से विद्यार्थी यहाँ आते हैं, सीखते हैं, और अपने समाज में बदलाव की मशाल जलाते हैं। यही मेरा विास है-‘‘जब तक हम परिवार को एक इकाई के रूप में नहीं देखेंगे, तब तकस्थायी बदलाव संभव नहीं है।’’ वर्ष 1987 से 2025 तक की यह 38 वर्षो की यात्रा मेरे लिए केवल कामनहीं, बल्कि जीवन का विद्यालय रही है। यहाँ मैंने पीड़ा देखी, आँसू देखे, लेकिन साथ ही साहस, जिजीविषा और नवजीवन की अदम्य शक्ति भीदेखी।