नई दिल्ली – डॉ. अंकुर सिंघल, उत्तर भारत की लगभग 22.5% महिलाएं ‘स्ट्रेस यूरिनरी इनकॉन्टिनेंस’ (SUI) से प्रभावित हैं। हालिया क्षेत्रीय अध्ययन के ये आंकड़े न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि इस ओर भी इशारा करते हैं कि महिलाओं के स्वास्थ्य में यह एक गंभीर और लंबे समय से उपेक्षित समस्या है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है।स्ट्रेस इनकॉन्टिनेंस वह स्थिति है, जब खाँसने, छींकने, वजन उठाने या हँसने जैसी सामान्य शारीरिक गतिविधियों के दौरान पेशाब का अनियंत्रित रिसाव होता है। इसका प्रमुख कारण है पेल्विक फ्लोर की मांसपेशियों का कमजोर होना और मूत्रमार्ग को पर्याप्त सहारा न मिलना, जो प्रसव के दौरान हुई चोट, रजोनिवृत्ति (मेनोपॉज़), मोटापे या उम्र बढ़ने की वजह से हो सकता है। यह जानलेवा भले न हो, लेकिन यह महिलाओं की दिनचर्या, आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित करता है।दिक्कत यह है कि इसके लक्षण होने के बावजूद महिलाएं इस पर खुलकर बात नहीं करतीं। शर्म, संकोच और जज किए जाने के डर से वे डॉक्टर के पास जाने से बचती हैं। कई अध्ययनों में इस स्थिति की व्यापकता की पुष्टि हुई है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन एंड पब्लिक हेल्थ के अनुसार, मूत्र असंयम (यूरेनरी इनकॉन्टिनेंस) के मामलों में 43.7% हिस्सा स्ट्रेस इनकॉन्टिनेंस का है, जबकि कुल प्रसार दर 27.1% है। जर्नल ऑफ एनवायरनमेंटल एंड ऑक्युपेशनल हेल्थ के सर्वे में 15.9% महिलाएं SUI से पीड़ित पाई गईं, वहीं इस्तांबुल मेडिकल जर्नल के अनुसार, तृतीयक अस्पताल में आने वाली 57.3% महिलाएं इस समस्या का सामना कर रही थीं।विशेषज्ञ मानते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था, स्त्री रोग विशेषज्ञों और यूरोलॉजिस्ट को खासकर प्रसवोत्तर और रजोनिवृत्ति के दौर से गुजर रही महिलाओं में इसके शुरुआती परीक्षण और उपचार को प्राथमिकता देनी चाहिए। कैलाश दीपक अस्पताल के सीनियर कंसल्टेंट और यूनिट हेड, डॉ. अंकुर सिंघल (MBBS गोल्ड मेडलिस्ट, MS, M.Ch. यूरोलॉजी, MRCS लंदन, यूके) का कहना है,स्ट्रेस यूरिनरी इनकॉन्टिनेंस केवल यूरोलॉजिकल समस्या नहीं है, बल्कि यह महिलाओं के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक जीवन को प्रभावित करती है। कई महिलाएं सालों तक चुपचाप इस तकलीफ़ को झेलती रहती हैं, क्योंकि वे इसे प्रसव या उम्र बढ़ने का स्वाभाविक नतीजा मान लेती हैं। लेकिन यह पूरी तरह इलाज योग्य है। सही जांच, जीवनशैली में बदलाव, पेल्विक फ्लोर फिजियोथेरेपी और ज़रूरत पड़ने पर मिनिमली इनवेसिव सर्जरी के ज़रिए हम उन्हें सामान्य जीवन में लौटा सकते हैं। असली चुनौती है इस पर से सामाजिक कलंक हटाना। मैंने कई महिलाओं को देखा है जो तब तक इलाज नहीं करातीं, जब तक यह उनकी दिनचर्या पर असर न डालने लगे कुछ तो सिर्फ रिसाव के डर से बाहर निकलना या काम पर जाना भी छोड़ देती हैं। ज़रूरत है उन्हें यह भरोसा दिलाने की कि मदद उपलब्ध है और ऐसे मामलों पर खुलकर बात करना सामान्य होना चाहिए। अच्छी बात यह है कि जागरूकता और शुरुआती उपचार के साथ महिलाएं अपना आत्मविश्वास और जीवन की गुणवत्ता वापस पा सकती हैं। जनस्वास्थ्य अभियानों, डॉक्टर-रोगी संवाद और महिला स्वास्थ्य कार्यक्रमों में मूत्र स्वास्थ्य को मुख्य विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए न कि महज़ एक फुटनोट की तरह।
स्ट्रेस इनकॉन्टिनेंस को अब केवल एक चिकित्सा स्थिति नहीं, बल्कि महिलाओं की गरिमा और भलाई के लिए एक सामूहिक कार्रवाई का आह्वान माना जाना चाहिए।
