-देश भर में छठ पर्व की धूम, जानें छठ पूजा की कहानी
-सीता, कुंती और द्रोपदी ने भी किया था पूजा का आयोजन
परफैक्ट न्यूज/नई दिल्ली
देश भर में छठ पर्व धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है। शनिवार को छठब्रती महिलाएं उपवास के साथ सांय के समय अस्ताचलगामी यानी अस्त होते सूर्य को अर्घ्य देंगी। इसके पश्चात रविवार 3 नवंबर को सुबह प्रातः कालीन अर्घ्य के साथ व्रत समाप्त होगा। छठ व्रतियों ने 31 अक्टूबर गुरुवार को नहाय-खाए के विधि-विधान के साथ व्रत शुरू किया था। शुक्रवार 1 नवंबर को खरना का आयोजन किया गया।
पौराणिक मान्यता के अनुसार मां दुर्गा के छठे रूप कात्यायनी देवी को भी छठ माता का रूप माना जाता है। छठ मइया को संतान देने वाली माता के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि जिन लोगों को संतान नहीं होती है वह जोड़े इस व्रत को संतान प्राप्ति के लिए रखते हैं। बाकी सभी लोग अपने बच्चों की सुख व शांति के लिए छठ के व्रत को करते हैं।
मूल रूप से बिहार में मनाया जाने वाला यह पर्व बिहार के साथ झारखंड, पश्चिम बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाया जाता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देश के सभी बड़े शहरों में छठ पूजा का आयोजन बड़े स्तर पर होने लगा है। रविवार को प्रातःकाल में उगते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद पूजा करने के साथ प्रसाद ग्रहण कर व्रत खोला जाएगा। छठ का व्रत दीपावली के छठे दिन मनाया जाता है। बता दें कि यह व्रत साल में दो बार मनाया जाता है। हिंदू कैलेंडर के मुताबिक चैत्र मास और फिर कार्तिक मास में। चैत्र मास के मुकाबले कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को यह पर्व बड़े पैमाने पर मनाया जाता है।
सीता से लेकर द्रोपदी ने रखा छठ का व्रतः
अथर्ववेद में छठ व्रत के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है। छठ व्रत को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी लाभकारी माना गया है। ऐसी मान्यता है कि अपने अपने समय में सीता, कुंती व द्रौपदी ने भी यह व्रत किया था। लंका पर विजय प्राप्त कर अयोध्या वापसी पर राम राज्य की स्थापना के लिए भगवान राम और माता सीता ने इस व्रत को किया था। उन्होंने सप्तमी के दिन उगते सूर्य की उपासना के साथ पूजा संपन्न की थी। तब से यही परंपरा चली आ रही है। एक और कथा के मुताबिक जब पांडव जुए में अपना सब कुछ हार गए थे तब द्रौपदी ने छठ का व्रत रखकर पूजा-अर्चना की थी। इसके पश्चात पांडवों को अपना खोया हुआ राज-पाठ मिल गया था। छठ पर्व में व्रती अपने घरों के आसपास के नदी-तालाब या छठ घाट में खड़े होकर सूर्य देव को अर्घ्य देते हैं।
मालिनी और प्रियंवद की कहानी
एक पुराण के अनुसार राजा प्रियंवद के कोई संतान नहीं थी। राजा के अनुरोध पर ऋषि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन कर महारानी मालिनी को प्रसाद के रूप में खीर खिलाई थी। इसके पश्चात महारानी मालिनी को पुत्र की प्राप्ति तो हुई लेकिन मृत पुत्र ने जन्म लिया था। राजा प्रियंवद अपने मृत पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में अपने प्राण त्यागने लगे। उसी समय भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और राजा से कहा कि मैं सृष्टि की मूल प्रबृत्ति के छठे अंश से पैदा हुई हूं। इसलिए मुझे षष्ठी कहा जाता है। हे राजन मुम मेरी पूजा करो और दूसरे लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करो। तब राजा प्रियंवद ने व्रत रखकर देवी षष्ठी की पूजा विधि-विधान के साथ की और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
कर्ण से संबंधः
एक मान्यता के अनुसार महाभारत काल में छठ पर्व की शुरूआत हुई थी। कुंती पुत्र कर्ण ने इस व्रत की शुरूआत की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और पानी में घंटो खड़े रहकर सूर्य की उपासना किया करते थे। जिससे प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने उन्हें महान योद्धा बनने का आशीर्वाद दिया था।
भगवान राम और सीता से संबंधः
एक मान्यता के मुताबिक बिहार के मुंगेर के सीता चरण में कभी मां सीता ने छह दिनों तक रह कर छठ पूजा की थी। वहीं दूसरी ओर पौराणिक कथाओं में यह मान्यता भी है कि 14 वर्ष वनवास के बाद भगवान राम अयोध्या लौटे थे। तब ऋषि-मुनियों ने उन्हें रावण वध के पाप से मुक्ति के लिए राजसूय यज्ञ के आयोजन की सलाह दी थी। इसके लिए अयोध्या से मुग्दल ऋषि को आमंत्रण भेजा गया था। लेकिन मुग्दल ऋषि ने भगवान राम एवं सीता को अपने आश्रम में आने का आदेश दिया। ऋषि की आज्ञा पर भगवान राम और सीता वहां गए। ऋषि ने दोनों को इस पूजा के बारे में बताया गया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता को गंगाजल छिड़क कर पवित्र किया और कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। आश्रम में ही रहकर माता सीता ने छह दिनों तक सूर्यदेव की आराधना की थी। एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व के दिन मां गायत्री का जन्म हुआ था।
जानें छठ माई के व्रत की कथाः
छठ व्रत की कथा बेहद रोमांचक है। बताया जाता है कि सतयुग में शर्याति नाम के एक राजा हुआ करते थे। उनकी कई पत्नियां थीं। लेकिन पुत्री सुकन्या के रूप में एक ही संतान थी। राजा अपनी पुत्री को बहुत प्यार करते थे। एक बार राजा शर्याति जंगल में शिकार खेलने गए। उनके साथ पुत्री सुकन्या भी गईं। उस जंगल में च्यवन ऋषि तपस्या कर रहे थे। ऋषि च्यवन तपस्या में इतने लीन थे कि उनके शरीर पर दीमक लग चुकी थी। बांबी से उनकी आंखें जुगनू की तरह चमकने लगी थीं। बांबी के दोनों छिद्रों में जहां ऋषि की आंखें थी, उनमें सुकन्या ने कौतुहलवश तिनके डाल दिए। तिनके डाले जाने से मुनि की आंखें फूट गईं। इससे क्रोधित च्यवन ऋषि ने श्राप दे दिया। श्राप की वजह से राजा शर्याति के सैनिकों का मल-मूत्र निकलना बंद हो गया। राजा के सैनिक दर्द से तपड़ने लगे।
यह बात राजा शर्याति को मालूम हुई तो वह बेहद परेशान हो गए। राजा अपनी पुत्री सुकन्या को लेकर च्यवनमुनि के आश्रम पहुंच और उनसे क्षमा मांगी। राजा ने अपनी पुत्री के अपराध को देखते हुए उसे ऋषि को ही सोंप दिया और वापस आ गए। सुकन्या ऋषि च्यवन के पास रहकर उनकी सेवा करने लगी।
इसके पश्चात कार्तिक मास में सुकन्या एक दिन जल लाने के लिए पुष्करिणी के समीप गई। वहां उसे एक नागकन्या मिली। नागकन्या ने सुकन्या को कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्य की उपासना एवं व्रत करने को कहा। राजा की पुत्री सुकन्या ने पूरी निष्ठा से छठ का व्रत किया जिसके प्रभाव से च्यवन मुनि की दोनों आंखों की ज्योति पुनः वापस आ गई। तभी से छठ पूजा को मनाने की परंपरा पड़ गई।