सच में ‘हिन्दी’ के लिए ‘हिन्दी’ में कुछ किया जाए तो अच्छा लगता है। जब सरहद के पार दीगर भाषा-भाषी हिन्दी के लिए कुछ करते हैं तो हम आश्चर्यमिश्रित भाव लिए ठगा-सा महसूस करते हैं। वाकई जिस दिन अंतरात्मा से हिन्दी बोलने में हम गर्व महसूस करेंगे तो हिन्दी कहां से कहां पहुंच जाएगी। ‘विश्व हिन्दी दिवस’ का उद्देश्य भी कुछ यही है जिससे दुनिया में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए वातावरण बनाना, प्रतिप्रेम, अनुराग पैदा करना, हिन्दी की दशा के लिए जागरूकता फैला नई दिशा तक पहुंचाना तथा हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करना है।
अंग्रेजीयत की मिल्कियत के आगे यह कठिन दिखता है नहीं। यदि इसके लिए राजनीति से इतर हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति रही आई तो वह दिन दूर नहीं, जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की हिन्दी दुनिया के माथे की बिन्दी बनेगी। यही सब हासिल करने के लिए ‘विश्व हिन्दी दिवस’ की अवधारणा हुई थी। विश्व में हिन्दी को विकसित करने और इसका प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से ही विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शुरुआत की गई।
हालांकि पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ लेकिन आधिकारिक तौर पर हर वर्ष मनाए जाने की घोषणा में 31 साल लग गए, जो बेमानी रहा। ईमानदार कोशिशों की कमी से ही देश-दुनिया में हिन्दी को समृद्ध बनाने में काफी समय लग रहा है।
विश्व हिन्दी दिवस को हर वर्ष 10 जनवरी को मनाए जाने की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2006 में कर इस दिशा में ठोस शुरुआत जरूर की और विदेश मंत्रालय ने दुनियाभर के भारतीय दूतावासों में सहित सभी कार्यालयों में गरिमामय आयोजनों, गोष्ठियों, परिचर्चाओं के माध्यम से सशक्त किए जाने के निर्देश दिए। लेकिन सरकारी तंत्र से ज्यादा परदेशियों ने इसको मान दिया तभी तो दुनिया के लगभग 170 देशों में किसी-न-किसी रूप में हिन्दी पढ़ाई और सिखाई जाती है। एक दुखद पहलू यह भी कि भारत में ही जहां कहीं हिन्दी का पूर्व में विरोध हुआ, उसके पीछे स्थानीय राजनीति ज्यादा थी।